Hamaari Adhuri Kahani - A love Story Part - 2

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हमारी अधुरी कहानी – एक प्रेम कथा। (भाग – 2)


शिर्षक (Title) - हमारी अधुरी कहानी – एक प्रेम कथा।
वर्ग (Category) – प्रेम कथा (Love Story)
लेखक (Author) – सी0 एन0 एजेक्स (C.N. AJAX)


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एक तरफ मुझे खुशी थी की आज मैं उससे पुछ सकता हुँ की वह पाठशाला के कक्षा के बाहर क्यों खड़ी रहती और दुसरी तरफ मुझे आश्चर्य था कि वह यहाँ हमारे घर क्यों आई है ?

इससे पहले मैं कुछ पुछ पाता, उसने मुझसे पुछा – क्या आप कैलाश जी हैं ? 
मैंने कहा – नहीं मेरा नाम राकेश है, कैलाश घर पर ही है बस आ ही रहा होगा।

इतना कह कर मैं कैलाश को आवाज़ लगाने लगा।

कैलाश के बाहर निकलते हुए – आ रहा हूँ भाई इतनी भी क्या जल्दी है ? 
कैलाश ने बाहर निकलते ही पुछा - क्या हुआ और यह लड़की कौन है ?(लड़की की तरफ इशारा करते हुए।)
मैंने कहा – यह लड़की तुम्हे ही ढुंढ रही है। 
कैलाश – मुझे ? ... मुझसे क्या काम है इसे ?
मैंने कहा – पता नहीं, तुम खुद ही इससे पुछ लो ? 

कैलाश (लड़की से पुछ्ते हुए) – क्या बात है ? 
लड्की – जी मेरा नाम गौरी है मुझे मेरी माँ ने यहाँ भेजा है वो आपके यहाँ खाना बनाने का काम करती है।
कैलाश – ओह्हो! वैसे तुम्हारी माँ ठीक तो है ?
गौरी – हाँ, थोडी तबीयत खराब है तो बस वो एक दो दिन में आ जाएगी। 
कैलाश (परेशान होते हुए) – एक दो दिन ?
गौरी – परेशान होने की ज़रुरत नहीं, उनकी जगह पर मैं खाना बना दुंगी। बस आज भर थोडी तकलीफ कर लिजीए।
कैलाश – आज क्या है ?
गौरी – आज माँ की दवाई और देखभाल करने के लिए घर पर रहना होगा।

जब गौरी और कैलाश बातें कर रहे थे तब मैं सिर्फ गौरी को ही देख रहा था।

गौरी – अच्छा मैं कल से सुबह आ जाऊँगी।

इतना कह कर वो जाने के मुड़ी, उसके चेहरे पर एक निराशा साफ झलक रही थी, ऐसा लगा की वह कुछ और भी कहना चाह रही थी, पर कह नहीं पाई, पर अचानक से मुझे एहसास हुआ की शायद उसे पैसों की जरुरत हो। मैंने तुरंत ही गौरी को पिछे से आवाज़ लगाई।

गौरी ने मुड़ कर मुझे देखा ... उसके चेहरे पर एक बेजान सी आशा झलकी। मैंने झट से अपने बटुए (पर्स) में से 500रू0 निकाल कर उसकी तरफ बढ़ाया और कहा इसे रख लो दवा के लिए काम आंएगें।

गौरी के चेहरे पर भाव फिर बदले वो मेरे हाथों में पैसे को ऐसे देख रही थी, जैसे रेगिस्तान में प्यासा पानी के तरफ देखता हो, पर उसने पैसे लेने के लिए अपना हाथ आगे नहीं बढ़ाया।

इससे पहले वो पैसे लेने से इंकार करती, मैंने कहा – चाची की इस महिने की पगार बाकि थी, सोचा तुम्हारे घर पर ही आकर दे दुँ पर तुम यहाँ आ गई, इसे रख लो।

इतना सुनने के बाद उसने मेरे हाथ से पैसे ले लिए और अपने हाथ जोड़ कर मुझे धन्यवाद दिया और वापस चली गई।

इसके बाद हमने ब्रेड और दुध का नाश्ता लिया और ऑफिस चले गये। आज ऑफिस जाते समय मैंने उसे पाठशाला के बाहर नहीं देखा तो समझ गया कि वो आज घर पर ही होगी।

शाम हुई और हम वापस घर आए तो देखा की दरवाजे पर एक थैला लटक रहा था और उस थैले में एक टिफिन बॉक्स था, जिसमे खाना था। टिफिन को छुने से गरमाहट का आभास हो रहा था, जिसका मतलब था कि खाना ज्यादा देर पहले नहीं बना है।

हमने बाहर इधर उधर देख कर जानने की कोशिश की यह काम किसका पर कुछ पता नहीं चला, मैं और कैलाश घर के अंदर आ गये और हाथ-पैर धो कर टिफिन को खोला तो खाने की खुशबु से भुख और भी बढ गई।

मैने कैलाश से अंदाज़ा लगाने को कहा की किसने किया होगा ये सब ? तो...

कैलाश ने कहा – हो सकता है कि चाची ने भिजवाया हो।

मैं कैलाश से सहमत था, बातों बातों में खाना कैसे खत्म हो गया पता नहीं चला। फिर हमने बर्तन की सफाई की, रात भी हो चुकी थी, हम सोने को चले गये पर नींद नहीं आ रही थी, बार बार गौरी का चेहरा मेरे आँखों के सामने था, उसके ख्यालों में आँख कब लगी पता नहीं, पर तड़के सवेरे जैसे मेरी आँख खुली, फिर से उसके ख्यालों ने मुझे घेर लिया। मैं सुबह चार बजे से ही बेसब्री से सात बजने का इंतज़ार कर रहा था।किसी काम में मन भी नहीं लग रहा था मुझे, ऐसा लग रहा था की घड़ी की सुई को अपने हाथों से घुमा दुँ।



जब सात बजे तो मैंने देखा गौरी आ रही थी, मैं चाहता था कि उससे बात करुँ पर मेरे मन में एक झीझक सी हो रही थी। एक दो दिन यही क्रम चलता रहा। गौरी ठीक सात बजे आती और खाना बना देती और चली जाती।

उसने कभी भी उस टिफ़िन के बारे में नहीं पुछा।
कैलाश से एक दिन मैंने कहा की – यार, गौरी ने तो कभी भी टिफ़िन के बारे मे पुछा ही नहीं तो वो टिफ़िन किसका होगा ?
कैलाश – एक काम करते हैं गौरी कल आती है तो उसे पुछ ही लेते हैं ।

मैंने फिर सहमत हो कर हामीं भर दी।

अगली सुबह गौरी घर पर आई और काम पर लग गई। मैं रसोई के दरवाजे पर जा कर खडा हो गया। मैं गौरी को पीछे देख रहा था, गौर से देखने पर मुझे उसके गर्दन पर एक कटे होने का निशान मिला और उसके बाजु पर भी हल्के ज़ख्म थे यह देख कर मैं विचलित हो उठा और मैंने एकदम से गौरी से पुछा – गौरी ? गौरी – जी ...(गौरी एक दम से डर कर पीछे मुडी और एक कदम पीछे हट गयी)। वो बहुत ही घबरा गई।

मैंने कहा – डरो नहीं। एक बात पुछनी थी।
गौरी – जी ... पुछिए।
इस बार मैंने घबरा कर सवाल बदल दिया।
मैंने पुछा – वो टिफ़िन का डब्बा तुमने रखा था ?
गौरी – कैसा डब्बा?
मैंने कहा – जिसमें दिन सुबह तुम पहली बार हमारे घर आई, उसी दिन शाम को हमें घर के दरवाज़े पर एक थैले में टिफ़िन का डब्बा था जिसमें खाना था। हमने सोचा वो तुम्हारी माँ ने भिजवाया है।
गौरी – नहीं, माँ कैसे भिजवा सकती है ? वह तो अभी चल भी नहीं सकती है।
मैंने पुछा – क्या? तुम्हारी माँ चल नहीं सकती ? पर तुमने तो कहा था कि तुम्हारी माँ कि तबीयत ज्यादा खराब नहीं है और वो एक दो दिन में काम पर आ जाएगी?


मेरे इतना कहते वो बहुत घबरा गई और रोने लगी।
मैंने उसे सांत्वना देते हुए कहा - घबराओ मत, बताओ क्या हुआ है तुम्हारी माँ को ?

जब उसने पुरी बात बताई तो मेरे होश उड़ गये, साथ ही मुझे एहसास हुआ कि मुझसे अंजाने में एक गलती हो गयी है जिसकी सज़ा कजरी चाची और गौरी को भुगतनी पड़ी।

अब जाकर सारे सवालों के जवाब मिलने लगे...क्यों गौरी पाठशाला के बाहर छुप कर शिक्षक की बातें सुनती थी, क्यों कजरी चाची के दो दिनों तक नहीं आने के बावजुद भी, वो नहीं आने की खबर भिजवा न सकी, गौरी के गर्दन और बाजु में जख्म कैसे लगे।

बस एक बात समझ में नहीं आ रही थी, तो ये वो टिफ़िन किसने रखा था ?



कहानी आगे जारी रहेगी...

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